जिस की हसरत थी उसे पा भी चुके खो भी चुके
अब किसी चीज़ का हम को नहीं अरमाँ होता
शिद्दत-ए-दर्द ही होती कहीं ग़ारत-गर-ए-होश
बख़्त इतना तो न बरहम-ज़न-ए-सामाँ होता
चारा-गर कोशिश-ए-बे-सूद है तदबीर-ए-इलाज
हम न होते तो मरज़ क़ाबिल-ए-दरमाँ होता
आ ही जाता है बुरे वक़्त में अपनों को ख़याल
कोई होता जो हमारा भी तो पुरसाँ होता
पूछते क्या हो सबब दफ़्न-ए-दिल-ए-ज़ार के बअ'द
मैं मुसीबत-ज़दा अब भी न हिरासाँ होता
रोने वालों को तो तक़दीर से रो बैठे थे
ऐ अजल कौन हमारे लिए गिर्यां होता
ग़म को अब रखिए कहाँ ज़ीस्त कहीं ज़ीस्त भी हो
ख़त्म क़िस्सा हुआ जिस का कि ये उनवाँ होता
हम तो इस बात पे राज़ी थे मगर ऐ 'नातिक़'
नफ़्स-ए-काफ़िर भी किसी तरह मुसलमाँ होता
ग़ज़ल
जिस की हसरत थी उसे पा भी चुके खो भी चुके
नातिक़ गुलावठी