जिस के तालिब हैं वो मतलूब कहीं बैठ रहा
मुंतज़िर हम को बिठा ख़ूब कहीं बैठ रहा
बस कि लिक्खी थी मैं हालत दिल-ए-गुम-गश्ता की
खो के क़ासिद मिरा मक्तूब कहीं बैठ रहा
देखें क्या आँख उठा कर कि हमें तो नाहक़
आँख दिखला के वो महबूब कहीं बैठ रहा
शाम से जैसे निहाँ महर हो सो वस्ल की रात
मुँह छुपा कर वो इस उस्लूब कहीं बैठ रहा
है मिरी ख़ाना-नशीनी से ये घर घर मज़कूर
ख़ैल-ए-उश्शाक़ का सरकूब कहीं बैठ रहा
जाना मैं उस का न आना कि समझ कर वो शोख़
बैठने को मिरे मायूब कहीं बैठ रहा
बूद-ओ-बाश अपनी कहें क्या कि अब उस बिन यूँ है
जिस तरह से कोई मज्ज़ूब कहीं बैठ रहा
अव्वल-ए-इश्क़ में सूरत ये बनी 'जुरअत' की
हो के आख़िर को वो महजूब कहीं बैठ रहा
ग़ज़ल
जिस के तालिब हैं वो मतलूब कहीं बैठ रहा
जुरअत क़लंदर बख़्श