जिस भी जगह देखी उस ने अपनी तस्वीर हटा ली थी
मेरे दिल की दीवारों पर दीमक लगने वाली थी
एक परिंदा उड़ने की कोशिश में गिर गिर जाता था
घर जाना था उस को पर वो रात बहुत ही काली थी
आँगन में जो दीप क़तारों में रक्खे थे धुआँ हुए
हवा चली उस रात बहुत जब मेरे घर दीवाली थी
इक मुद्दत पर घर लौटा था पास जब उस के बैठा मैं
मुझ में भी मौजूद नहीं थी वो ख़ुद में भी ख़ाली थी
'अर्श' बहारों में भी आया एक नज़ारा पतझड़ का
सब्ज़ शजर के सब्ज़ तने पर इक सूखी सी डाली थी
ग़ज़ल
जिस भी जगह देखी उस ने अपनी तस्वीर हटा ली थी
विजय शर्मा अर्श