जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
मुझे तो अपनी भी यारो ख़बर उसी से मिली
बदल बदल के चला सम्त ओ रहगुज़र भी मगर
वो इक मक़ाम कि हर रहगुज़र उसी से मिली
हम ऐसे कोई हुनर-मंद भी न थे फिर भी
वो क़द्र-दाँ था कि दाद-ए-हुनर उसी से मिली
वो कौन हैं जो बनाते हैं अपनी दुनिया ख़ुद
हमें तो रोने को भी चश्म-ए-तर उसी से मिली
अजब था शख़्स जो फिरता था ख़ुद बना तलवार
चली जो तेग़ तो मुझ को सिपर उसी से मिली
क़दम क़दम पे थे रस्ते में मह-वशों के हुजूम
मिली किसी से तो जा कर नज़र उसी से मिली
न किश्त-ज़ारों में देखा जिसे न बाग़ों में
हर एक फ़स्ल मगर फ़स्ल पर उसी से मिली
तमाम उम्र गुरेज़ाँ रहा था जिस से मैं
क़दम लहद में जो रक्खे कमर उसी से मिली
बसीरत-ए-निगह-ओ-दिल पड़ी नहीं मिलती
मिली जिसे भी ये दौलत 'उमर' उसी से मिली
ग़ज़ल
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
उमर अंसारी