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जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे | शाही शायरी
jinhen ras aa gae hain ye sahar-numa andhere

ग़ज़ल

जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे

अहमद राही

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जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे
ये तलाश-ए-सुब्ह-ए-नौ में कभी हम-सफ़र थे मेरे

थीं जो क़त्ल-गाहें उन की हैं वही क़याम-गाहें
थे जो रहज़नों के मस्कन हैं वो रहबरों के डेरे

मैं जहान-ए-बे-दिली में कहाँ ले के जाऊँ दिल को
मिरे दिल की घात में हैं यहाँ चार-सू लुटेरे

ऐ शबों के पासबानों मैं ये तुम से पूछता हूँ
जिन्हें पूजते रहे हो वो कहाँ गए सवेरे

अरे मैं तो बे-नवा हूँ जो कभी न बिक सकेगा
अरे तुम सुनार हो कर यहाँ बन गए कसीरे