जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे
ये तलाश-ए-सुब्ह-ए-नौ में कभी हम-सफ़र थे मेरे
थीं जो क़त्ल-गाहें उन की हैं वही क़याम-गाहें
थे जो रहज़नों के मस्कन हैं वो रहबरों के डेरे
मैं जहान-ए-बे-दिली में कहाँ ले के जाऊँ दिल को
मिरे दिल की घात में हैं यहाँ चार-सू लुटेरे
ऐ शबों के पासबानों मैं ये तुम से पूछता हूँ
जिन्हें पूजते रहे हो वो कहाँ गए सवेरे
अरे मैं तो बे-नवा हूँ जो कभी न बिक सकेगा
अरे तुम सुनार हो कर यहाँ बन गए कसीरे
ग़ज़ल
जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे
अहमद राही