जिन की हसरत में दिल-ए-रुस्वा ने ग़म खाए बहुत
संग हम पर इन दरीचों ने ही बरसाए बहुत
रौशनी मादूम गहरे हो चले साए बहुत
जाने क्यूँ तुम आज की शब मुझ को याद आए बहुत
क़िस्मत-ए-अहल-ए-क़फ़स फूलों की ख़ुशबू भी नहीं
यूँ तो गुलशन में सबा ने फूल महकाए बहुत
लोग इस को भी अगर कहते हैं तो कह लें बहार
मुस्कुराए कम शगूफ़े और मुरझाए बहुत
एक आँसू भी गिरे तो गूँज उठती है ज़मीं
आज तो हम अपनी तन्हाई से घबराए बहुत
एक रस्म-ए-सरफ़रोशी थी सो रुख़्सत हो गई
यूँ तो दीवाने हमारे ब'अद भी आए बहुत
इशरत-ए-हस्ती पे थी 'महताब' दुनिया की नज़र
दिल को क्या कहिए कि उस ने दर्द अपनाए बहुत
ग़ज़ल
जिन की हसरत में दिल-ए-रुस्वा ने ग़म खाए बहुत
महताब ज़फ़र