जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
अब लिख रही हूँ उन को हक़ीक़त के बाब में
इक झील के किनारे परिंदों के दरमियाँ
सूरज को होते देखा था तहलील आब में
ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
कब ज़िंदगी गुज़ारी है अपने हिसाब में
इक हाथ उस का जाल पे पतवार एक में
और डूबता वजूद मिरा सैल-ए-आब में
पुर्वाई चल के और भी वहशत बढ़ा गई
हल्की सी आ गई थी कमी इज़्तिराब में
ग़ज़ल
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
फ़ातिमा हसन