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जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे | शाही शायरी
jin dinon hum us shab-e-haz ke siyah-karon mein the

ग़ज़ल

जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे

वली उज़लत

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जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे
उस अयाग़-ए-चश्म के पैवस्ता मय-ख़्वारों में थे

चौंक चौंक अब खींचो हो दामन हमारी ख़ाक से
वो भी सपना हो गया तुम गुल थे हम ख़ारों में थे

ख़ार-ओ-ख़स महरम हैं पुर-फ़न गरचे हम रहे जूँ हुबाब
हम तिरे ऐ बहर-ए-हुस्न आख़िर हवा-दारों में थे

ख़ाक भी उन की है शक्ल-ए-सर्व मिस्ल-ए-गर्द-बाद
इस क़दर आज़ाद के जीते गिरफ़्तारों में थे

ख़स्म जो मिक़राज़-ए-गुलचीं हैं तिरे ऐ शम्अ-क़द
जूँ पतिंगे जल गए हम जो तिरे यारों में थे

उस अज़ीज़-ए-ख़ल्क़ की आँखों के दो बादाम पर
बिक गए वो सब जो यूसुफ़ के ख़रीदारों में थे

एक पत्थर भी न आया सर पे 'उज़लत' अब की साल
गए किधर तिफ़्लाँ जो दीवानों के ग़म-ख़्वारों में थे