जिन अँखड़ियों में न था कुछ शरारतों के सिवा
उन अँखड़ियों में नहीं कुछ भी हसरतों के सिवा
लबों पे मौज-ए-तबस्सुम का अहद बीत गया
लबों पे आज नहीं कुछ शिकायतों के सिवा
वो अंजुमन का तसव्वुर करे तो कैसे करे
जिसे नसीब न हो कुछ भी ख़ल्वतों के सिवा
इक आइना हूँ जुनून-ओ-ख़िरद का आईना
मिरी नज़र में नहीं कुछ भी हैरतों के सिवा
उसी से पूछ मिरे इंतिज़ार का आलम
जिसे न कुछ भी मयस्सर हो फ़ुर्सतों के सिवा
गुदाज़-ए-साग़र-ओ-पैमाना कौन समझा है
मिरे सिवा मिरे दिल की नज़ाकतों के सिवा
कमी उसी में तमन्नाएँ जल्वा-गर थीं 'कमाल'
कुछ आज दिल में नहीं है जराहतों के सिवा
ग़ज़ल
जिन अँखड़ियों में न था कुछ शरारतों के सिवा
कमाल अहमद सिद्दीक़ी