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जिन अँखड़ियों में न था कुछ शरारतों के सिवा | शाही शायरी
jin ankhDiyon mein na tha kuchh shararaton ke siwa

ग़ज़ल

जिन अँखड़ियों में न था कुछ शरारतों के सिवा

कमाल अहमद सिद्दीक़ी

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जिन अँखड़ियों में न था कुछ शरारतों के सिवा
उन अँखड़ियों में नहीं कुछ भी हसरतों के सिवा

लबों पे मौज-ए-तबस्सुम का अहद बीत गया
लबों पे आज नहीं कुछ शिकायतों के सिवा

वो अंजुमन का तसव्वुर करे तो कैसे करे
जिसे नसीब न हो कुछ भी ख़ल्वतों के सिवा

इक आइना हूँ जुनून-ओ-ख़िरद का आईना
मिरी नज़र में नहीं कुछ भी हैरतों के सिवा

उसी से पूछ मिरे इंतिज़ार का आलम
जिसे न कुछ भी मयस्सर हो फ़ुर्सतों के सिवा

गुदाज़-ए-साग़र-ओ-पैमाना कौन समझा है
मिरे सिवा मिरे दिल की नज़ाकतों के सिवा

कमी उसी में तमन्नाएँ जल्वा-गर थीं 'कमाल'
कुछ आज दिल में नहीं है जराहतों के सिवा