EN اردو
जीते जी बस वो बुत रहा हमराह | शाही शायरी
jite ji bas wo but raha hamrah

ग़ज़ल

जीते जी बस वो बुत रहा हमराह

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

;

जीते जी बस वो बुत रहा हमराह
अब तो बंदे के है ख़ुदा हमराह

दिल दिया उस को पर ये डरता हूँ
दुश्मन इक दोस्त के किया हमराह

नहीं यारान-ए-रफ़्तगाँ का निशाँ
ले गए क्या ये नक़्श-ए-पा हमराह

इस में क्या आप की है रुस्वाई
रहे गर मुझ सा पारसा हमराह

तुझे देखा जिधर निगाह गई
था तसव्वुर ज़ि-बस तिरा हमराह

रंज-ए-तंहाई-ए-लहद न रहा
यार के ग़म को ले लिया हमराह

शब को जाते हो साथ लो मशअ'ल
कहिए तो हो ये दिल-जला हमराह

हुए बा'द अपने बेवफ़ा उश्शाक़
ले गए याँ से हम-वफ़ा हमराह

तेरी रफ़्तार का मैं कुश्ता हूँ
क़ब्र तक आइयो ज़रा हमराह

ये दिल-ए-बद-गुमाँ न देख सके
अगर उस बुत के हो ख़ुदा हमराह

ता सलामत तू आए ऐ क़ासिद
ठहर इतना करूँ दुआ हमराह

उस ने तन्हा मुझे न जाने दिया
ग़म-ए-फ़ुर्क़त को कर दिया हमराह

ना-तवाँ है बहुत ग़ुबार मिरा
तू ज़रा रहियो ऐ सबा हमराह

रही याँ गर्दिश और जामा-दरी
काश लाते न दस्त-ओ-पा हमराह

गालियाँ जैसे दीं हैं दिल ले कर
जाएगा ये दिया लिया हमराह

जा न तन्हा तू ऐ शह-ए-ख़ूबाँ
हो 'वज़ीर'-ए-बरहना-पा हमराह