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जीने की है उमीद न मरने की आस है | शाही शायरी
jine ki hai umid na marne ki aas hai

ग़ज़ल

जीने की है उमीद न मरने की आस है

ज़ुहैर कंजाही

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जीने की है उमीद न मरने की आस है
जिस शख़्स को भी देखिए तस्वीर-ए-यास है

जब से मसर्रतों की हुई जुस्तुजू मुझे
मैं भी उदास हूँ मिरा दिल भी उदास है

लाशों का एक ढेर है घेरे हुए मुझे
आबाद एक शहर मिरे आस-पास है

मुझ से छुपा सकेगी न अपने बदन का कोढ़
दुनिया मिरी निगाह में यूँ बे-लिबास है

यारान-ए-मय-कदा मिरा अंजाम देखना
तन्हा हूँ और सामने ख़ाली गिलास है

अब तर्क-ए-आरज़ू के सिवा क्या करें 'ज़ुहैर'
इस दश्त-ए-आरज़ू की फ़ज़ा किस को रास है