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जीने देगा भी हमें ऐ दिल जिएँ भी या न हम | शाही शायरी
jine dega bhi hamein ai dil jien bhi ya na hum

ग़ज़ल

जीने देगा भी हमें ऐ दिल जिएँ भी या न हम

नातिक़ गुलावठी

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जीने देगा भी हमें ऐ दिल जिएँ भी या न हम
क्या कहें अब तुझ को हम तुझ को कहें अब क्या न हम

उठ गए हम दरमियाँ से उठ गया हम से हिजाब
रह गए हम उस के हो कर रह गया पर्दा, न हम

दौलत-ए-दिल क्या है जा कर अहल-ए-दिल से पूछिए
माल था अपना भी कुछ जाने मगर रखना न हम

रंज-ए-रुस्वाई नहीं दुनिया है रुस्वाई का घर
हैं सभी रुस्वा तो यूँ समझो न तुम रुस्वा न हम

फ़ाएदा क्या रहती दुनिया तक अगर कोई रहा
ये तो ज़ाहिर है कि रहने के लिए दुनिया न हम

खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ' अहल-ए-इश्क़ को
बात किस की रह गई कोई अदू सच्चा न हम

ख़ुद-फ़रामोशी ने रक्खा है गिरफ़्तार-ए-ख़ुदी
छूटते क्यूँ छोड़ते दामन अगर अपना न हम

इस से कुछ होती अगर 'नातिक़' हमें तस्कीन-ए-तब्अ'
आज तक सब जम्अ' कर लेते कलाम अपना न हम