जी जाऊँ जो बंद नातिक़ा हो
ख़ामोश कहीं ये बोलता हो
जाँबाज़ जो तरद्दुद भी तिरा हो
सौ बार मरे फिर उठ खड़ा हो
ज़र्रे में हो नूर-ए-मेहर-वश
तेरा जो करम हो क्या से क्या हो
खुल जाएँ हज़ारों कूचा-ए-ज़ख़्म
तलवार चले तो रास्ता हो
ज़ुल्फ़ों पे जो उस के मर मिटा हूँ
तुर्बत पे दरख़्त जाल का हो
घड़ियों के हैं पुर-ग़ुबार शीशे
मिट्टी कोई दिल न हो गया हो
रंगीन हो क़बा-ए-तन लहू से
जोगी हूँ लिबास गेरुआ हो
बख़्शे जो फ़लक ग़म-ए-ज़माना
ग़म-ख़्वार वो हूँ कि नाश्ता हो
सानी है तिरा मुहाल ऐ बुत
पैदा न ख़ुदा का दूसरा हो
तन-ए-ख़ाक हो हूँ वो साफ़ तीनत
मेला न कफ़न का रोंगटा हो
वो बोसा-ए-लब मुझे कि दुश्नाम
दरवेश हूँ कुछ मिले भला हो
यूँ ऐ तप-ए-ग़म जला सरापा
सर-ता-क़दम इक आबला हो
ऐ दस्त-ए-ख़ुदा जो हाथ की है
है 'शाद' शिकस्ता-पा नया हो
ग़ज़ल
जी जाऊँ जो बंद नातिक़ा हो
शाद लखनवी