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जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर | शाही शायरी
ji DhunDhta hai ghar koi donon jahan se dur

ग़ज़ल

जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर

फ़ानी बदायुनी

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जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
इस आप की ज़मीं से अलग आसमाँ से दूर

शायद मैं दर-ख़ुर निगह-ए-गर्म भी नहीं
बिजली तड़प रही है मिरे आशियाँ से दूर

आँखें चुरा के आप ने अफ़्साना कर दिया
जो हाल था ज़बाँ से क़रीब और बयाँ से दूर

ता-अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बंदगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तिरे आस्ताँ से दूर

है मनअ राह-ए-इश्क़ में दैर-ओ-हरम का होश
यानी कहाँ से पास है मंज़िल कहाँ से दूर