जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ
सूरज को ग़ुरूब से बचाऊँ
बस मेरा चले जो गर्दिशों पर
दिन को भी न चाँद को बुझाऊँ
मैं छोड़ के सीधे रास्तों को
भटकी हुई नेकियाँ कमाऊँ
इम्कान पे इस क़दर यक़ीं है
सहराओं में बीज डाल आऊँ
मैं शब के मुसाफ़िरों की ख़ातिर
मिशअल न मिले तो घर जलाऊँ
अशआ'र हैं मेरे इस्तिआरे
आओ तुम्हें आइने दिखाऊँ
यूँ बट के बिखर के रह गया हूँ
हर शख़्स में अपना अक्स पाऊँ
आवाज़ जो दूँ किसी के दर पर
अंदर से भी ख़ुद निकल के आऊँ
ऐ चारागरान-ए-अस्र-ए-हाज़िर
फ़ौलाद का दिल कहाँ से लाऊँ
हर रात दुआ करूँ सहर की
हर सुब्ह नया फ़रेब खाऊँ
हर जब्र पे सब्र कर रहा हूँ
इस तरह कहीं उजड़ न जाऊँ
रोना भी तो तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू है
आँखें जो रुकें तो लब हिलाऊँ
ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
अब मर के ख़ुदा को आज़माऊँ
ग़ज़ल
जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ
अहमद नदीम क़ासमी