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जिगर ख़ूँ हो के बाहर दीदा-ए-गिर्यान आवेगा | शाही शायरी
jigar KHun ho ke bahar dida-e-giryan aawega

ग़ज़ल

जिगर ख़ूँ हो के बाहर दीदा-ए-गिर्यान आवेगा

जुरअत क़लंदर बख़्श

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जिगर ख़ूँ हो के बाहर दीदा-ए-गिर्यान आवेगा
यही रोना रहा तो आज-कल तूफ़ान आवेगा

ख़बर आते ही पूछे है ज़ालिम बैठ जा यक-दम
हक़ीक़त सब कहूँगा मुझ में जब औसान आवेगा

न है अब ख़ाक-अफ़्शानी न हैरानी न उर्यानी
जुनूँ गर आ गया तो ले के सब सामान आवेगा

पढूँगा पीछे नामा में ख़ुदा के वास्ते क़ासिद
ये कह अव्वल कि याँ तक वो किसी उनवान आवेगा

न जा ऐ जान टुक तू और भी इक रात इस तन से
सुना है कल के दिन वो घर मिरे मेहमान आवेगा

किसी की क़दर जीते-जी नहीं मालूम होती है
करे है क़त्ल पर पीछे तुझे अरमान आवेगा

गली में उस बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार की 'जुरअत' चला तो है
व-लेकिन वाँ से ख़ूँ में देखना अफ़्शान आवेगा