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जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता | शाही शायरी
jidhar jate hain sab jaana udhar achchha nahin lagta

ग़ज़ल

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता

जावेद अख़्तर

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जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता

मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता

बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती
ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता

ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो
कि सब बेघर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता