झील आँखें थीं गुलाबों सी जबीं रखता था 
शाम ज़ुल्फ़ों में छुपा कर वो कहीं रखता था 
धूप छाँव सा वो इक शख़्स मिरे शहर में था 
दिल में हाँ और वो होंटों पे नहीं रखता था 
उस के होंटों पे महकते थे वफ़ाओं के कँवल 
अपनी आँखों में जो अश्कों के नगीं रखता था 
उस की मुट्ठी में नहीं प्यार का इक जुगनू भी 
जो मोहब्बत के सितारों पे यक़ीं रखता था 
आप अपने में ब-ज़ाहिर तो बहुत ख़ुश था 'सफ़ी' 
दिल में दुखती सी ख़राशें भी कहीं रखता था
        ग़ज़ल
झील आँखें थीं गुलाबों सी जबीं रखता था
सय्यद सग़ीर सफ़ी

