झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
दबी है जैसे ख़ाकिस्तर में चिंगारी सी कोई
तड़पता तिलमिलाता रहता हूँ दरिया की मानिंद
पड़ी है ज़र्ब एहसासात पर कारी सी कोई
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
खिंची है हर तरफ़ इक चार दीवारी सी कोई
किसी भी मोड़ से मेरा गुज़र मुश्किल नहीं है
मिरे पैरों तले रहती है हमवारी सी कोई
गुमाँ होने लगा जब से मुझे क़द-आवरी का
चला करती है मेरे पाँव पर आरी सी कोई
किसी महफ़िल किसी तन्हाई में रुकना है मुश्किल
मुझे खींचे लिए जाती है बे-ज़ारी सी कोई

ग़ज़ल
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही