EN اردو
झलक पर्दे से यूँ रह रह के दिखलाने से क्या हासिल | शाही शायरी
jhalak parde se yun rah rah ke dikhlane se kya hasil

ग़ज़ल

झलक पर्दे से यूँ रह रह के दिखलाने से क्या हासिल

जिगर बरेलवी

;

झलक पर्दे से यूँ रह रह के दिखलाने से क्या हासिल
ये ठंडी गर्मियाँ भी दरमियाँ लाने से क्या हासिल

रहे जब ख़ाक पा-ए-शम्अ' पर जल कर तो जलना है
नहीं गिर्या तो परवानों के जल जाने से क्या हासिल

अबद तक साँस लेने और ग़म सहने में लज़्ज़त है
दयार-ए-इश्क़ में घबरा के मर जाने से क्या हासिल

नहीं होता है कोई काम हरगिज़ वक़्त से पहले
उमीद-ओ-आरज़ू में दिल को तड़पाने से क्या हासिल

न यूँ टूटीं न टूटेंगी कभी ज़िंदाँ की दीवारें
कोई सर फोड़ कर मर जाए मर जाने से क्या हासिल

तरस आया है ज़ालिम को न आए कम-नसीबों पर
तरस ही आ गया जब तो सितम ढाने से क्या हासिल

अगर मय-ख़्वार इक इक बूँद को साक़ी तरस जाएँ
तिरे जाम-ओ-सुबू से तेरे मयख़ाने से क्या हासिल

मोहब्बत का कहीं दामन भरा है भीक माँगे से
तुम्हीं कह दो हमारे हात फैलाने से क्या हासिल

अभी बाक़ी है इक उम्मीद-ए-मर्ग-ए-ना-गहाँ लेकिन
उसी ज़िंदाँ में फिर आए तो मर जाने से क्या हासिल

उसी के तेवरों को देखती रहती हैं तक़दीरें
दिल-ए-राहत-तलब बेचैन हो जाने से क्या हासिल

'जिगर' अपने लिए जीना कोई जीने में जीना है
न काम आएँ किसी के तो जिए जाने से क्या हासिल

'जिगर' है ज़िंदगी जब तक कि गर्मी है मोहब्बत की
हुआ जब सर्द सीना तो जिए जाने से क्या हासिल