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जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है | शाही शायरी
jaur-e-paiham ki intiha bhi hai

ग़ज़ल

जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है

नसीम भरतपूरी

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जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है
एक के ब'अद दूसरा भी है

ग़ैर ने बज़्म-ए-यार में हम से
कुछ कहा है तो कुछ सुना भी है

शौक़ से दिल मिरा करो पामाल
यही कम-बख़्त की सज़ा भी है

उन की तिरछी नज़र से डरता हूँ
ये अदा ही नहीं क़ज़ा भी है

कहते हैं वो जो पूछता हूँ मिज़ाज
आप से कोई बोलता भी है

नहीं वाक़िफ़ 'नसीम' से क्या ख़ूब
कोई तुम पर मिटा हुआ भी है