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जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं | शाही शायरी
jaur-e-aflak bas-ki jhele hain

ग़ज़ल

जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं
ऐसे पापड़ बहुत से बेले हैं

गह हुज़ूरी है गाह है दूरी
गह अकेले हैं गह दो-केले हैं

अस्प-ए-ताज़ी नज़र नहीं आते
सो खुरों से भरे तवेले हैं

कहते हैं याँ जिसे क़िमार-ए-इश्क़
खेल ऐसे बहुत से खेले हैं

जीते हैं वो क़िमार-ए-इश्क़ में यार
जान पर अपनी जो कि खेले हैं

ठहरे कब जंग-ए-हुस्न में ये शैख़
एक मुद्दत के ये भगेले हैं

पास अपने दुई का नाम नहीं
जब से पैदा हुए अकेले हैं

न दिखाना लहद में आँखें नकीर
पास अपने भी क़ुल के ढेले हैं

कुफ़्र-ओ-दीं का हो फ़ैसला क्यूँकर
एक मुद्दत के ये मनझेले हैं

दैर-ओ-काबा की भीड़-भाड़ है क्या
ऐसे देखे बहुत से मेले हैं

गिर्या-ए-पुर-असर की शिद्दत है
साफ़ आब-ए-बक़ा के रेले हैं

भेजा अपना ख़याल उस बुत ने
जब सुना 'मुंतही' अकेले हैं