जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं
ऐसे पापड़ बहुत से बेले हैं
गह हुज़ूरी है गाह है दूरी
गह अकेले हैं गह दो-केले हैं
अस्प-ए-ताज़ी नज़र नहीं आते
सो खुरों से भरे तवेले हैं
कहते हैं याँ जिसे क़िमार-ए-इश्क़
खेल ऐसे बहुत से खेले हैं
जीते हैं वो क़िमार-ए-इश्क़ में यार
जान पर अपनी जो कि खेले हैं
ठहरे कब जंग-ए-हुस्न में ये शैख़
एक मुद्दत के ये भगेले हैं
पास अपने दुई का नाम नहीं
जब से पैदा हुए अकेले हैं
न दिखाना लहद में आँखें नकीर
पास अपने भी क़ुल के ढेले हैं
कुफ़्र-ओ-दीं का हो फ़ैसला क्यूँकर
एक मुद्दत के ये मनझेले हैं
दैर-ओ-काबा की भीड़-भाड़ है क्या
ऐसे देखे बहुत से मेले हैं
गिर्या-ए-पुर-असर की शिद्दत है
साफ़ आब-ए-बक़ा के रेले हैं
भेजा अपना ख़याल उस बुत ने
जब सुना 'मुंतही' अकेले हैं

ग़ज़ल
जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही