EN اردو
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था | शाही शायरी
jashn tha aish-o-tarab ki intiha thi main na tha

ग़ज़ल

जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था

आग़ा हज्जू शरफ़

;

जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
यार के पहलू में ख़ाली मेरी जा थी मैं न था

उस ने कब बरख़ास्त ऐ दिल महफ़िल-ए-मेराज की
किस से पूछूँ रात कम थी या सवा थी में न था

मैं तड़प कर मर गया देखा न उस ने झाँक कर
उस सितमगर को अज़ीज़ अपनी हया थी मैं न था

वादा ले लेता कि खिलवाना न मुझ को ठोकरें
आलम-ए-अर्वाह में जिस जा क़ज़ा थी मैं न था

सर्फ़ करता किस ख़ुशी से जा के उस में अपनी ख़ाक
क्या कहूँ जिस दिन बनाई कर्बला थी मैं न था

मुँह न खुल सकता न होते हम-कलाम उन से कलीम
उम्र भर हसरत ही रहती बात क्या थी मैं न था

ले गई थी मुझ को हसरत जानिब-ए-ख़ुद-रफ़्तगी
जिस तरफ़ को मंज़िल-ए-बीम-ओ-रजा थी मैं न था

दिल उलट जाता मिरा या दम निकल जाता मिरा
शुक्र है जब लन-तरानी की सदा थी मैं न था

लाला-ओ-गुल को बचा लेता ख़िज़ाँ से ऐ 'शरफ़'
बाग़ में जिस वक़्त नाज़िल ये बला थी मैं न था