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जल्वा-गाह-ए-दिल में मरते ही अँधेरा हो गया | शाही शायरी
jalwa-gah-e-dil mein marte hi andhera ho gaya

ग़ज़ल

जल्वा-गाह-ए-दिल में मरते ही अँधेरा हो गया

सीमाब अकबराबादी

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जल्वा-गाह-ए-दिल में मरते ही अँधेरा हो गया
जिस में थे जल्वे तिरे वो आइना क्या हो गया

जब तसव्वुर ने बढ़ा दी नाला-ए-मौज़ूँ की लय
साज़-ए-बे-आवाज़ से इक शेर पैदा हो गया

नज्द के हिरनों से एजाज़-ए-मोहब्बत पोछिए
पड़ गई जिस पर निगाह-ए-क़ैस लैला हो गया

जान दे दी मैं ने तंग आ कर वुफ़ूर-ए-दर्द से
आज मंशा-ए-जफ़ा-ए-दोस्त पूरा हो गया

अब कहाँ मायूसियों में ज़ब्त की गुंजाइशें
वो भी क्या दिन थे कि तेरा ग़म गवारा हो गया

दिल खिंचा जितना क़फ़स में आशियाने की तरफ़
दूर उतना ही क़फ़स से आशियाना हो गया

रफ़्ता रफ़्ता हो गए जज़्ब उस में जल्वे सैंकड़ों
दिल मिरा 'सीमाब' तस्वीर-ए-सरापा हो गया