जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था
शम्अ जिसे हम समझे थे शम्अ न थी परवाना था
शोबदे आँखों के हम ने ऐसे कितने देखे हैं
आँख खुली तो दुनिया थी बंद हुई अफ़्साना था
अहद-ए-जवानी ख़त्म हुआ अब मरते हैं न जीते हैं
हम भी जीते थे जब तक मर जाने का ज़माना था
दिल अब दिल है ख़ुदा रक्खे साक़ी को मय-ख़ाने को
वर्ना किसे मालूम नहीं टूटा सा पैमाना था
'फ़ानी' को कैसा ही सही फिर भी तुझी से निस्बत थी
दीवाना था था किस का तेरा ही दीवाना था
ग़ज़ल
जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था
फ़ानी बदायुनी