जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
क्या दिल-कुशा ये सीन है फ़स्ल-ए-बहार का
नाज़ाँ हैं जोश-ए-हुस्न पे गुल-हा-ए-दिल-फ़रेब
जोबन दिखा रहा है ये आलम उभार का
हैं दीदनी बनफ़शा ओ सुम्बुल के पेच ओ ताब
नक़्शा खींचा हुआ है ख़त-ओ-ज़ुल्फ़-ए-यार का
सब्ज़ा है या ये आब-ए-ज़मुर्रद की मौज है
शबनम है बहर या गुहर-ए-आबदार का
मुर्ग़ान-ए-बाग़ ज़मज़मा-संजी में महव हैं
और नाच हो रहा है नसीम-ए-बहार का
परवाज़ में हैं तीतरियाँ शाद ओ चुस्त ओ मस्त
ज़ेब-ए-बदन किए हुए ख़िलअत बहार का
मौज-ए-हवा ओ ज़मज़मा-ए-अंदलीब-ए-मस्त
इक साज़-ए-दिल-नवाज़ है मिज़राब-ओ-तार का
अबर-ए-तनुक ने रौनक़-ए-मौसम बढ़ाई है
ग़ाज़ा बना है रू-ए-उरूस-ए-बहार का
अफ़्सोस इस समाँ में भी 'अकबर' उदास है
सुहान-ए-रूह हिज्र है इक गुल-इज़ार का
ग़ज़ल
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
अकबर इलाहाबादी