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जलती बुझती हुई शम्ओं का धुआँ रहता है | शाही शायरी
jalti bujhti hui shamon ka dhuan rahta hai

ग़ज़ल

जलती बुझती हुई शम्ओं का धुआँ रहता है

शाहिद कलीम

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जलती बुझती हुई शम्ओं का धुआँ रहता है
कुछ अजब धुँद के आलम में मकाँ रहता है

ख़ुश्क दरिया है न दरिया पे है पहरा लेकिन
हर तरफ़ प्यास का ख़ूँ-रंग समाँ रहता है

इस भरे शहर में मुश्किल है तजस्सुस उस का
किस को फ़ुर्सत जो कहे कौन कहाँ रहता है

भूलना सहल नहीं वक़्त की संगीनी का
ज़ख़्म भरता है मगर उस का निशाँ रहता है

मेरी आँखों में हैं सद-रंग मनाज़िर लेकिन
कुछ है मादूम जो एहसास-ए-ज़ियाँ रहता है

नींद आती है कहाँ उजड़े मकाँ में 'शाहिद'
कोई आसेब का हर रात गुमाँ रहता है