EN اردو
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले | शाही शायरी
jalan dil ki likkhen jo hum dil-jale

ग़ज़ल

जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले

रिन्द लखनवी

;

जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
ज़बान-ए-क़लम में पड़ें आबले

रह-ए-स'अब-ए-उल्फ़त में घबरा न दिल
बहुत ऐसे पेश आएँगे मरहले

न दिन वो तुम्हारे न अपना वो सिन
तुम्हारे हमारे वो दिन सिन ढले

अदम की भी क्या राह है बे-नज़ीर
चले जाते हैं पेश-ओ-पस क़ाफ़िले

वो अब नीमचा कर चुके हैं अलम
अजल आ चुकी सर पे क्यूँ-कर टले

ठहर जा कोई दम के मेहमान हैं
ख़बर ले हमारी चले हम चले

लकीरें भी मिट मिट गईं हाथ की
ज़ि-बस हम ने दस्त-ए-तअस्सुफ़ मले

रहे दिल के अरमान सब दिल में हैफ़
निकलने न पाए मरे हौसले

बड़ा हो बुढ़ापे का सब खो दिया
न मेरी जवानी न वो वलवले

गड़ा कोई ले कर दिल-ए-मुज़्तरिब
मज़ारों में आने लगे ज़लज़ले

सियह-कारियों में कटी उम्र सब
क़लम की तरह सर के बल गो चले

मोहब्बत बुतों की ये दिल छोड़ दे
किसी तरह छाती से पत्थर टले

शिकायत का मौक़ा न था वस्ल में
कि थी राह थोड़ी बहुत थे गिले

कोई दम में है नक़्श-ए-हस्ती फ़ना
किधर ध्यान है तेरा ओ बावले

किनार-ए-लहद में पड़े हैं वो आज
जो आग़ोश-ए-मादर में थे कल पले

गला तेग़-ए-क़ातिल से रगड़ा किया
न झचका ज़रा वाह रे मनचले

न लाया कोई शम्-ओ-गुल गोर पर
लहद में भी दाग़-ए-मोहब्बत जले

चले बाग़-ए-हस्ती से हम ना-मुराद
किसी रुत में ऐ गुल न फूले-फले

अज़ल से हैं उश्शाक़ मज़बूह-ए-हुस्न
जो मानिंद-ए-माही कटे हैं गले

जो फ़रियादी तेरे भी आ निकले वाँ
ज़मीं होगी महशर की ऊपर-तले

जो अबरू के होंगे इशारे यूँही
मिरी जान लाखों कटेंगे गले

किए जाए काविश पलक यार की
अभी दिल के फूटे नहीं आबले

सिरा में न ग़ाफ़िल हो बाँधो कमर
चलो साथ वालो चलो हम चले

रहे मेरा जिस्म-ए-मिसाली सही
बला से ये पुतला सड़े या गले

ये सब सर-ज़मीं फ़ित्ना-अंगेज़ है
हज़ारों ही उठते हैं याँ गलगले

नज़र भर के फिर देख लूँ शक्ल-ए-यार
जो आई हुई मेरी दम भर टले

हमेशा रहा दाग़ दाग़ अपना जिस्म
सदा मिस्ल-ए-सर्व-ए-चराग़ाँ जले

फ़लक को मिलाना था गर ख़ाक में
तो फिर नाज़-ओ-नेमत से क्यूँ हम पले

रहे बार-वर शाख़-ए-नख़्ल-ए-मुराद
इलाही हमेशा तो फूले-फले

ज़माने पे अफ़्सुर्दगी छा गई
न हैं अब वो चर्चे न वो मश्ग़ले

मुसाफ़िर हूँ दिलवाउँगा नज़्र-ए-ख़िज़्र
जो तय होंगे रस्ते के सब मरहले

लहू शब से आता है अश्कों के साथ
कलेजे के नासूर शायद छिले

बसर हो गई इस तमन्ना में उम्र
कोई दोस्त यक-रंग मुझ को मिले

ये क्या रोग अब हो गया 'रिन्द' को
कई साल उधर तक थे चेगे भले