जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
किसी भी रुत में हरा हो ये वो दरख़्त न था
वो ख़्वाब देखा था शहज़ादियों ने पिछले पहर
फिर उस के बाद मुक़द्दर में ताज ओ तख़्त न था
ज़रा से जब्र से मैं भी तो टूट सकती थी
मिरी तरह से तबीअत का वो भी सख़्त न था
मिरे लिए तो वो ख़ंजर भी फूल बन के उठा
ज़बान सख़्त थी लहजा कभी करख़्त न था
अँधेरी रातों के तन्हा मुसाफ़िरों के लिए
दिया जलाता हुआ कोई साज़-ओ-रख़्त न था
गए वो दिन कि मुझी तक था मेरा दुख महदूद
ख़बर के जैसा ये अफ़्साना लख़्त-लख़्त न था
ग़ज़ल
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
परवीन शाकिर