जैसे कोई दायरा तकमील पर है
इन दिनों मुझ पर गुज़िश्ता का असर है
ज़िंदगी की बंद सीपी खुल रही है
और उस में अहद-ए-तिफ़्ली का गुहर है
दिल है राज़-ओ-रम्ज़ की दुनिया में शादाँ
अक़्ल को हर आन तशवीश-ए-ख़बर है
इक तवक़्क़ुफ़-ज़ार में गुम है तसलसुल
लम्हा-ए-मौजूद गोया उम्र भर है
ज़ेहन में रौज़न अनोखे खुल रहे हैं
जिन से अन-सोची हवाओं का गुज़र है
फ़ासले तक़्सीम ही होते नहीं जब
'साज़' फिर क्या सुस्त-रौ क्या तेज़-तर है
ग़ज़ल
जैसे कोई दायरा तकमील पर है
अब्दुल अहद साज़