जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
हाए वो क्यूँकर दिल बहलाए
ग़म भी जिस को रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़ और कैसी हक़ीक़त
अपने ही जल्वे अपने ही साए
झूटी है हर एक मसर्रत
रूह अगर तस्कीन न पाए
कार-ए-ज़माना जितना जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
ज़ब्त-ए-मोहब्बत शर्त-ए-मोहब्बत
जी है कि ज़ालिम उमडा आए
हुस्न वही है हुस्न जो ज़ालिम
हाथ लगाए हाथ न आए
नग़्मा वही है नग़्मा कि जिस को
रूह सुने और रूह सुनाए
राह-ए-जुनूँ आसान हुई है
ज़ुल्फ़ ओ मिज़ा के साए साए
ग़ज़ल
जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
जिगर मुरादाबादी