जहाँ से दोश-ए-अज़ीज़ाँ पे बार हो के चले
ये सू-ए-मुल्क-ए-अदम शर्मसार हो के चले
हमारे देखने को ख़ुश अभी से हैं आदा
ज़रा न देख सके अश्क-बार हो के चले
पहुँच ही जाओगे मय-ख़ाने में ख़िज़र तुम भी
हमारे साथ जो यारों के यार हो के चले
तुम्हारी रह का रहा हम को हर तरफ़ धोका
चले जिधर को सो बे-इख़्तियार हो के चले
सना-निगार ये है किस के ख़ल्क़ का 'आरिफ़'
क़लम वरक़ पे न क्यूँ अश्क-बार हो के चले
ग़ज़ल
जहाँ से दोश-ए-अज़ीज़ाँ पे बार हो के चले
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़