जहाँ साँसें नहीं चलतीं वहाँ क्या चल रहा है
बहिश्त-ए-ख़ाक में ऐ रफ़्तगाँ क्या चल रहा है
पुराने दुख नए कपड़े पहन कर आ गए हैं
ये अपने शहर में आज़ुर्दगाँ क्या चल रहा है
ये जिन के अश्क मेरी जान को आए हुए हैं
मैं उन से पूछ बैठा था मियाँ क्या चल रहा है
हमारा भूक ने मुँह भर दिया है गालियों से
तुम्हारे बद-नसीबों के यहाँ क्या चल रहा है
हैं अश्कों के निशाने पर मुसलसल दुख हमारे
ये चालें हम से अंदोह-ए-जहाँ क्या चल रहा है
नदामत से मैं अपना मुँह छुपाता फिर रहा हूँ
ये मेरे दोस्तों के दरमियाँ क्या चल रहा है
यहाँ हर रोज़ होंटों के गिने जाते हैं टाँके
तुम्हारे शहर में शो'ला-बयाँ क्या चल रहा है
चला कर गोलियाँ मुझ पर परिंदों को बताओ
जहाँ पिंजरे नहीं बनते वहाँ क्या चल रहा है
तो फिर क़ाबू किया है हिज्र किस जादू से तुम ने
उदासी गर नहीं अफ्सुर्दा-गाँ क्या चल रहा है
हमारे रहबरों को जान के लाले पड़े हैं
तुम्हारे रहबरों में गुमरहाँ क्या चल रहा है

ग़ज़ल
जहाँ साँसें नहीं चलतीं वहाँ क्या चल रहा है
कबीर अतहर