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जहान-ए-रंग-ओ-बू में मुस्तक़िल तख़्लीक़-ए-मस्ती है | शाही शायरी
jahan-e-rang-o-bu mein mustaqil taKHliq-e-masti hai

ग़ज़ल

जहान-ए-रंग-ओ-बू में मुस्तक़िल तख़्लीक़-ए-मस्ती है

सीमाब अकबराबादी

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जहान-ए-रंग-ओ-बू में मुस्तक़िल तख़्लीक़-ए-मस्ती है
चमन में रात भर बनती है और दिन भर बरसती है

निगाह-ए-इश्क़ ओ चशम-ए-हुस्न दो सावन के बादल है
ये जब मिलते हैं दिल पर एक बिजली सी बरसती है

अगर है ज़िंदगी मंज़ूर बे-सोचे फ़ना हो जा
मज़ाक़-ए-आशिक़ी में नीस्ती का नाम हस्ती है

यकायक फिर चराग़ उम्मीद के होने लगे रौशन
ये सुब्ह-ए-रोज़-ए-महशर है कि शाम-ए-सुब्ह-ए-हस्ती है

ख़ुदा से हुक्म-ए-तंसीख़-ए-अजल माँगेंगे महशर में
मगर 'सीमाब' ये तो क़िस्सा-ए-मा-बाद-ए-हस्ती है