EN اردو
जहान-ए-इल्म का बाब-ए-निसाब होते हुए | शाही शायरी
jahan-e-ilm ka bab-e-nisab hote hue

ग़ज़ल

जहान-ए-इल्म का बाब-ए-निसाब होते हुए

अदील ज़ैदी

;

जहान-ए-इल्म का बाब-ए-निसाब होते हुए
भटक रहा हूँ मैं अहल-ए-किताब होते हुए

कुछ और भी है ख़राबी की दूसरी सूरत
मैं ख़ुद को देख रहा हूँ ख़राब होते हुए

जो काम दिल को मिरे फ़ितरतन नहीं भाते
उन्हें मैं कर नहीं पाता सवाब होते हुए

मिरे ही दम से है जो कुछ भी इस जहान में है
मैं कैसे ख़ुद को भुला दूँ जनाब होते हुए

'अदील' जो थे इन आँखों की रौशनी कल तक
वो चेहरे देख रहा हूँ मैं ख़्वाब होते हुए