जहान-ए-फ़िक्र में मिस्ल-ए-हवा चलता रहा हूँ मैं
लिए गर्द-ए-ख़िरद चारों दिशा चलता रहा हूँ मैं
सुराग़-ए-आगही को मैं कोई मंज़िल समझ बैठा
सराब-ए-अक़्ल की जानिब सदा चलता रहा हूँ मैं
नवर्द-ए-काएनात-ए-नौ हूँ लेकिन अजनबी सा हूँ
मशीनी दौर से हट कर ज़रा चलता रहा हूँ मैं
मुझे ता'बीर की ख़्वाहिश थी या शायद नहीं भी थी
अलम ख़्वाबों का ले कर जा-ब-जा चलता रहा हूँ मैं
अगर मैं छोड़ देता दिल कभी का बुझ गया होता
जला कर तीरगी में ये दिया चलता रहा हूँ मैं
थकन ने आ लिया था जिस्म तब सोचें तवाना थीं
जहाँ में रुक गया था ये ख़ला चलता रहा हूँ मैं
बला की गर्दिशें थीं सोच में जो छा गईं मुझ पर
बना के ज़िंदगी को दायरा चलता रहा हूँ मैं
अभी कितने मराहिल और हैं मेरी मसाफ़त के
मुझे कुछ तो बता दे ऐ ख़ुदा चलता रहा हूँ मैं

ग़ज़ल
जहान-ए-फ़िक्र में मिस्ल-ए-हवा चलता रहा हूँ मैं
सलमान सरवत