जहाँ-भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
ये कुल मिला कर भी हिज्र की रात मेरे गिर्ये से कम बनेगा
मैं दश्त हूँ ये मुग़ालता है न शाइ'राना मुबालग़ा है
मेरे बदन पर कहीं क़दम रख के देख नक़्श-ए-क़दम बनेगा
हमारा लाशा बहाओ वर्ना लहद मुक़द्दस मज़ार होगी
ये सुर्ख़ कुर्ता जलाओ वर्ना बग़ावतों का अलम बनेगा
तो क्यूँ न हम पाँच सात दिन तक मज़ीद सोचें बनाने से क़ब्ल
मेरी छुट्टी बता रही है ये रिश्ता टूटेगा ग़म बनेगा
मुझ ऐसे लोगों का टेढ़-पन क़ुदरती है सो ए'तिराज़ कैसा
शदीद नम ख़ाक से जो पैकर बनेगा ये तय है ख़म बनेगा
सुना हुआ है जहाँ में है कार कुछ नहीं है सो जी रहे हैं
बना हुआ है यक़ीं कि इस राएगानी से कुछ अहम बनेगा
शाहज़ादे की आदतें देख कर सभी उस पर मुत्तफ़िक़ हैं
ये जूँ ही हाकिम बना महल का वसीअ' रक़बा-ए-हरम बनेगा
मैं एक तरतीब से लगाता रहा हूँ अब तक सुकूत अपना
सदा के वक़्फ़े निकाल उस को शुरूअ' से सुन रिधम बनेगा
सफ़ेद रूमाल जब कबूतर नहीं बना तो वो शो'बदा-बाज़
पलटने वालों से कह रहा था रुको ख़ुदा की क़सम बनेगा

ग़ज़ल
जहाँ-भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
उमैर नजमी