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जब ज़ीस्त के मुश्किल लम्हों में अपने भी किनारा करते | शाही शायरी
jab zist ke mushkil lamhon mein apne bhi kinara karte

ग़ज़ल

जब ज़ीस्त के मुश्किल लम्हों में अपने भी किनारा करते

कौसर नियाज़ी

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जब ज़ीस्त के मुश्किल लम्हों में अपने भी किनारा करते
उस वक़्त भी हम ऐ अहल-ए-जहाँ हँस हँस के गुज़ारा करते हैं

सय्याद ने तेरे असीरों को आख़िर ये कह कर छोड़ दिया
ये लोग क़फ़स में रह कर भी गुलशन का नज़ारा करते हैं

जज़्बात में आ कर मरना तो मुश्किल सी कोई मुश्किल ही नहीं
ऐ जान-ए-जहाँ हम तेरे लिए जीना भी गवारा करते हैं

मंजधार में नाव डूब गई तो मौजों से आवाज़ आई
दरिया-ए-मोहब्बत से 'कौसर' यूँ पार उतारा करते हैं