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जब ये दावे थे कि हर दुख का मुदावा हो गए | शाही शायरी
jab ye dawe the ki har dukh ka mudawa ho gae

ग़ज़ल

जब ये दावे थे कि हर दुख का मुदावा हो गए

अबु मोहम्मद सहर

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जब ये दावे थे कि हर दुख का मुदावा हो गए
किस लिए तुम बाइस-ए-ख़ून-ए-तमन्ना हो गए

शौक़ का अंजाम निकला हसरत-ए-आग़ाज़-ए-शौक़
राज़ बन जाने से पहले राज़ इफ़शा हो गए

इक निगाह-ए-आश्ना का आसरा जाता रहा
आज हम तन्हाइयों में और तन्हा हो गए

तेरा मिलना और बिछड़ना क्या कहें किस से कहें
एक जान-ए-ना-तवाँ पर ज़ुल्म क्या क्या हो गए