जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे
दो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन का
गुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह-ओ-साल बाँधे
तार-ए-निगह में उस के क्यूँकर फँसे न ये दिल
आँखों ने जिस के लाखों वहशी ग़ज़ाल बाँधे
जो कुछ है रंग उस का सो है नज़र में अपनी
गो जामा ज़र्द पहने या चीरा लाल बाँधे
तेरे ही सामने कुछ बहके है मेरा नाला
वर्ना निशाने हम ने मारे हैं बाल बाँधे
बोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँकि उस से
जिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधे
मारोगे किस को जी से किस पर कमर कसी है
फिरते हो क्यूँ प्यारे तलवार ढाल बाँधे
दो-चार शेर आगे उस के पढ़े तो बोला
मज़मूँ ये तू ने अपने क्या हस्ब-ए-हाल बाँधे
'सौदा' जो उन ने बाँधा ज़ुल्फ़ों में दिल सज़ा है
शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे
ग़ज़ल
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
मोहम्मद रफ़ी सौदा