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जब वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ ठहर जाए | शाही शायरी
jab wajh-e-sukun-e-jaan Thahar jae

ग़ज़ल

जब वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ ठहर जाए

सैफ़ुद्दीन सैफ़

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जब वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ ठहर जाए
फिर कैसे दिल-ए-तपाँ ठहर जाए

मंज़िल की मुसाफ़िरो न पूछो
मिल जाए जिसे जहाँ ठहर जाए

अल्लाह-रे ख़िराम-ए-नाज़ उन का
इक बार तो आसमाँ ठहर जाए

क्या जानिए क़ाफ़िला वफ़ा का
लुट जाए कहाँ कहाँ ठहर जाए

ये रात ये टूटती उमीदें
अल्लाह ये कारवाँ ठहर जाए

है मौज में 'सैफ़' कश्ती-ए-दिल
मालूम नहीं कहाँ ठहर जाए