जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है 
और फिर इश्क़ वही कोह-ए-गिराँ खेंचता है 
किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक 
देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है 
अहद-ए-फ़ुर्सत में किसी यार-ए-गुज़श्ता का ख़याल 
जब भी आता है तो जैसे रग-ए-जाँ खेंचता है 
दिल के टुकड़ों को कहाँ जोड़ सका है कोई 
फिर भी आवाज़ा-ए-आईना-गराँ खेंचता है 
इंतिहा इश्क़ की कोई न हवस की कोई 
देखना ये है कि हद कौन कहाँ खेंचता है 
खिंचते जाते हैं रसन-बस्ता ग़ुलामों की तरह 
जिस तरफ़ क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ खेंचता है 
हम तो रहवार-ए-ज़बूँ हैं वो मुक़द्दर का सवार 
ख़ुद ही महमेज़ करे ख़ुद ही इनाँ खेंचता है 
रिश्ता-ए-तेग़-ओ-गुलू अब भी सलामत है 'फ़राज़' 
अब भी मक़्तल की तरफ़ दिल सा जवाँ खेंचता है
 
        ग़ज़ल
जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है
अहमद फ़राज़

