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जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ | शाही शायरी
jab tujh araq ke wasf mein jari qalam hua

ग़ज़ल

जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ

वली मोहम्मद वली

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जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
आलम में उस का नाँव जवाहर-रक़म हुआ

नुक़्ते पे तेरे ख़ाल के बाँधा है जिन ने दिल
वो दाएरे में इश्क़ के साबित-क़दम हुआ

तुझ फ़ितरत-ए-बुलंद की ख़ूबी कूँ लिख क़लम
मशहूर जग के बीच अतारद-रक़म हुआ

ताक़त नहीं कि हश्र में होवे वो दाद-ख़्वाह
जिस बे-गुनह पे तेरी निगह सूँ सितम हुआ

बे-मिन्नत-ए-शराब हूँ सरशार-ए-इम्बिसात
तुझ नैन का ख़याल मुझे जाम-ए-जम हुआ

जिन ने बयाँ लिखा है मिरे रंग-ए-ज़र्द का
उस कूँ ख़िताब ग़ैब सूँ ज़र्रीं-रक़म हुआ

शोहरत हुई है जब से तिरे शेर की 'वली'
मुश्ताक़ तुझ सुख़न का अरब ता अजम हुआ