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जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना | शाही शायरी
jab tan na raha mera hun wasil-e-jaanana

ग़ज़ल

जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना

वली उज़लत

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जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना
दीवार के गिरने से हम-साया हो हम-ख़ाना

आईने में देख आ कर मुँह अपना ऐ जानाना
ता-क़द्र मिरी जाने काश अपना हो दीवाना

उस ज़ुल्फ़ में कई दिन से बेताबी-ए-दिल गुम है
ज़ंजीर झनकती नईं क्या मर चुका दीवाना

बिजली मिरे नाले की जूँ चमके तो मूँद आँखें
ऐ आश्ना आगे तू इतना न था बेगाना

दिल शर्म-ए-मोहब्बत से तर है तू न फेर आँखें
क्यूँकर पिसे चक्की में भीगा हुआ है दाना

'उज़लत' गया आँखों से इस वास्ते जी उस का
है शम्अ' की चश्म-ए-तर तुरबत-गह-ए-परवाना