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जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं | शाही शायरी
jab taaruf se be-niyaz tha main

ग़ज़ल

जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं

सरफ़राज़ ज़ाहिद

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जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
कोई ज़ाहिद न 'सरफ़राज़' था मैं

जब हुआ आश्कार तब जाना
अपने बारे में कोई राज़ था मैं

अब तो साँसों में भी नहीं तरतीब
पहले वक़्तों में नय-नवाज़ था मैं

ऐ मिरी इंतिहा-ए-बर्बादी
किस क़दर मुब्तला-ए-नाज़ था मैं

सब को क़ुदरत थी ख़ुश-कलामी पर
ख़ामुशी में ज़बाँ-दराज़ था मैं

भूल जाता है अब दुआओं में
पहले जिस के लिए नमाज़ था मैं