जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
कोई ज़ाहिद न 'सरफ़राज़' था मैं
जब हुआ आश्कार तब जाना
अपने बारे में कोई राज़ था मैं
अब तो साँसों में भी नहीं तरतीब
पहले वक़्तों में नय-नवाज़ था मैं
ऐ मिरी इंतिहा-ए-बर्बादी
किस क़दर मुब्तला-ए-नाज़ था मैं
सब को क़ुदरत थी ख़ुश-कलामी पर
ख़ामुशी में ज़बाँ-दराज़ था मैं
भूल जाता है अब दुआओं में
पहले जिस के लिए नमाज़ था मैं
ग़ज़ल
जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
सरफ़राज़ ज़ाहिद