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जब सुख़न मौज-ए-तख़य्युल से रवानी माँगे | शाही शायरी
jab suKHan mauj-e-taKHayyul se rawani mange

ग़ज़ल

जब सुख़न मौज-ए-तख़य्युल से रवानी माँगे

नो बहार साबिर

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जब सुख़न मौज-ए-तख़य्युल से रवानी माँगे
मुझ से हर लफ़्ज़ नई रूह-ए-मआ'नी माँगे

दिल वो दीवाना कि दरिया से तू प्यासा लौटे
सामने मौज-ए-सराब आए तो पानी माँगे

हाफ़िज़ा ज़ेहन का दर बंद किए बैठा है
दिल बहलने को कोई याद पुरानी माँगे

हुस्न सर-ता-ब-क़दम तुर्फ़ा-अदाई चाहे
इश्क़ ता-हद्द-ए-यक़ीं सादा-गुमानी माँगे

आइना देखूँ तो 'साबिर' ये गुमाँ होता है
अक्स मुझ से वो ख़त-ओ-ख़ाल-ए-जवानी माँगे