जब से मेरे बाग़ में अंगूर के दाने लगे
मुझ को दुनिया में ही जन्नत के मज़े आने लगे
मय-कशों ने ही नहीं ढूँडा मिरे घर का पता
शैख़ साहब भी मुझे अब याद फ़रमाने लगे
इक सुरूर-ओ-कैफ़ का आलम है तारी बिन पिए
प्याले सादे पानी के भी मय के पैमाने लगे
जगमगा उट्ठे हैं अतराफ़-ओ-जवानिब में दिए
शम-ए-महफ़िल की पज़ीराई में परवाने लगे
मह-रुख़ों की बज़्म में शिरकत नज़र आने लगी
और तसव्वुर में धनक के रंग लहराने लगे
ताएरों की चहचहाहट से हुआ यूँ दिल गुदाज़
मेरे हम-मशरब मुझे नग़्मों पे उकसाने लगे
हम पे इक मसहूर-कुन सी कैफ़ियत तारी हुई
और हम इस कैफ़ियत में झूम कर गाने लगे
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के सेहर से निकले हैं जब
हम को अक्सर दिन में भी तारे नज़र आने लगे

ग़ज़ल
जब से मेरे बाग़ में अंगूर के दाने लगे
जमील उस्मान