जब से इस शहर-ए-बे-मकान में हूँ
मैं तिरे इस्म की अमान में हूँ
गुम्बद-ए-शेर में जो गूँजती है
मैं उसी दर्द की अज़ान में हूँ
मैं ने तन्हाइयों को पा लिया है
इस लिए ख़्वाब ही के ध्यान में हूँ
तितलियाँ रंग चुनती रहती हैं
और मैं ख़ुशबुओं की कान में हूँ
वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
ख़्वाहिशें साया साया बिखरी हैं
और मैं धूप के मकान में हूँ
मैं हूँ पैकान-ए-दर्द ऐ 'ख़ुर्शीद'
और इक याद की कमान में हूँ
ग़ज़ल
जब से इस शहर-ए-बे-मकान में हूँ
ख़ुर्शीद रब्बानी