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जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका | शाही शायरी
jab se dekha hai bana gosh-e-qamar mein tinka

ग़ज़ल

जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका

मियाँ दाद ख़ां सय्याह

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जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका
फाँस की तरह खटकता है जिगर में तिनका

नेज़ा-बाज़ी पे हमें अपनी न धमका ऐ तुर्क
हम समझते हैं इसे अपनी नज़र में तिनका

आतिश नाला-ए-बुलबुल ये चमन में भड़की
न बचा नाम को सय्याद के घर में तिनका

ख़ार-मिज़्गाँ को नज़र भर के न देखा मैं ने
पड़ गया उड़ के मिरे दीदा-ए-तर में तिनका

सुन के आमद तिरी आँखों से उठा लेते हैं
देखते हैं जो पड़ा राहगुज़र में तिनका

गिर्द उस बहर-ए-सफ़ा के मैं फिरा करता हूँ
रहता है गर्दी में जिस तरह भँवर में तिनका

आह-ए-सोज़ाँ ने जलाए तिरे जंगल 'सय्याह'
नाम को भी न रहा एक शजर में तिनका