जब सफ़र को मैं ने थामा था ये अंधा रास्ता 
आज रोता है मगर क़दमों से लिपटा रास्ता 
तैरती फिरती हैं चारों सम्त रंगीं तितलियाँ 
टेढ़ा टेढ़ा ऊँचा नीचा गीला कच्चा रास्ता 
कौन सुनता था किसी की कोई क्या कहता वहाँ 
मेरे काँधे पे सफ़र था मैं ने पकड़ा रास्ता 
वो जो गुज़रा था यहाँ से क्या पता लौटे कभी 
क्या ख़ला में ताकता रहता है तन्हा रास्ता 
मुझ को जलती आग मिलती तुम को ठंडा आब-ए-जू 
अपनी अपनी जुस्तुजू है अपना अपना रास्ता 
रेशा रेशा ज़ख़्म था लौटा सफ़र से जब 'शमीम' 
और मुझ से भी ज़ियादा हाँफता था रास्ता
        ग़ज़ल
जब सफ़र को मैं ने थामा था ये अंधा रास्ता
सय्यद अहमद शमीम

